सोमवार, 19 मार्च 2018

रिवायत .................

बुरे तुम नहीं  बदगुमां  मैं भी  नहीं


फिर ये बगावत कैसी।


सुकूँ तुम्हें भी नहीं दर्द मुझे भी नहीं 
फिर ये मोहब्बत कैसी। 

मैं हिन्दू हूँ तू मुस्लिम है,
वो सिख है कोई इशाई 
फिर ये सियासत  कैसी। 

मैं कुफ्र हूँ तू पाक़ है 
फिर ये शिकायत कैसी।

"फना" कह दिया तुम सोचा भी नहीं 
फिर ये काबिलियत कैसी। 


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बस एक बार मुझको,मोहलत तो दीजिये, ऐसे कभी बयां न हो, हसरत तो कीजिये। ऐसे कभी बयां न हो, सोहरत तो दीजिये। ****** कब तक कलम उठा के लिखत...

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